भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

491 / हीर / वारिस शाह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

परमेह<ref>पीलीया</ref> दा मैंनूं है असर होया रंग जरद होया एस वासते नी
छांपां खुभ गइयां गलां मेरिया ते दाग पै गया चुभ वरासते नी
कटे जांदे नूं भजके मिलिसां मैं तनिया ढिलोहां चोली दिया पालते नी
रूंनी अथरू डुलिया मुखडे ते खुल गए ततोलड़े<ref>रखवाले</ref> पासते नी
सुरखी होंठां दी आप मैं चूस लई रंग उड गया एस वासते नी
कटा घुटया विच गलवकड़ी दे डूकां लाल होइयां आस पास ते नी
मेरे पढू नूं कट ने ढुड मारी लासां पै गइयां मेरे मास ते नी
वारस शाह मैं पुज गरीबनी हां क्यों आंखदे लोक मुहासते<ref>ताने</ref> नी

शब्दार्थ
<references/>