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निगुणाँ कौ अंग / साखी / कबीर

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हरिया जाँणै रूषड़ा, उस पाँणीं का नेह।
सूका काठ न जाणई, कबहू बूठा मेह॥1॥

झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया, पाँहण ऊपरि मेह।
माटी गलि सैंजल भई, पाँहण वोही तेह॥2॥

पार ब्रह्म बूठा मोतियाँ, बाँधी सिषराँह।
सगुराँ सगुराँ चुणि लिया, चूक पड़ी निगुराँह॥3॥

कबीर हरि रस बरषिया, गिर डूँगर सिषराँह।
नीर मिबाणाँ ठाहरै, नाऊँ छा परड़ाँह॥4॥

कबीर मूँडठ करमिया, नव सिष पाषर ज्याँह।
बाँहणहारा क्या करै, बाँण न लागै त्याँह॥5॥

कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझा मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सुपहला दिन॥6॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह दोहा नहीं है।

कहि कबीर कठोर कै, सबद न लागै सार।
सुधबुध कै हिरदै भिदै, उपजि विवेक विचार॥7॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं-
बेकाँमी को सर जिनि बाहै, साठी खोवै मूल गँवावे।
दास कबीर ताहि को बाहैं, गलि सनाह सनमुखसरसाहै॥8॥

पसुआ सौ पानी पड़ो, रहि रहि याम खीजि।
ऊसर बाह्यौ न ऊगसी, भावै दूणाँ बीज॥9॥

मा सीतलता के कारणै, माग बिलंबे आइ।
रोम रोम बिष भरि रह्या, अमृत कहा समाइ॥8॥

सरपहि दूध पिलाइये, दूधैं विष ह्नै जाइ।
ऐसा कोई नाँ मिले, स्यूँ सरपैं विष खाइ॥9॥

जालौ इहै बड़पणाँ, सरलै पेड़ि खजूरि।
पंखी छाँह न बीसवै, फल लागे ते दूरि॥10॥

ऊँचा कूल के कारणै, बंस बध्या अधिकार।
चंदन बास भेदै नहीं, जाल्या सब परिवार॥11॥

कबीर चंदन के निड़ै, नींव भि चंदन होइ।
बूड़ा बंस बड़ाइताँ, यौं जिनि बूड़ै कोइ॥12॥