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राग रामकली / पृष्ठ - १ / पद / कबीर

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जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे॥टेक॥
त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥
तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥
गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।
तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥
अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।
तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥
बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।
यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥153॥

ऐसा ग्यान बिचारि लै लै, लाइ लै ध्याँनाँ।
सुंनि मंडल मैं घर किया, जैसे रहै सिंचाँनाँ॥टेक॥
उलटि पवन कह्याँ राखिये, कोई भरम बिचारै।
साँधै तीर पताल कूँ, फिरि गगनहि मारै॥
कंसा नाद बजाव ले, धुंनि निमसि ले कंसा॥
कंसा फूटा पंडिता, धंुनि कहाँ निवासा॥
प्यंड परे जीव कहाँ रहै, कोई मरम लखावै।
जीवत जिस घरि जाइये, ऊँचे मुषि नहीं आवै॥
सतगुर मिलै त पाइयै, ऐसी अकथ कहाँणीं।
कहै कबीर संसा गया, मिले सारंगपाँणीं॥154॥

है कोई संत सहज सुख उपजै, जाकौ जब तप देउ दलाली।
एक बूँद भरि देइ राम रस, ज्यूँ भरि देई कलाली॥टेक॥
काया कलाली लाँहनि करिहूँ, गुरु सबद गुड़ कीन्हाँ॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, काटि काटि कस दीन्हाँ॥
भवन चतुरदस भाटी पुरई, ब्रह्म अगनि परजारी।
मूँदे मदन सहज धुनि उपजी, सुखमन पीसनहारी॥
नीझर झरै अँमी रस निकसै, निहि मदिरावल छाका॥
कहैं कबीर यहु बास बिकट अनि, ग्याँन गुरु ले बाँका॥155॥

अकथ कहाँणी प्रेम की, कछु कही न जाई,
गूँगे केरी सरकरा, बैठे मुसुकाई॥टेक॥
भोमि बिनाँ अरु बीज बिन, तरवर एक भाई।
अनँत फल प्रकासिया, गुर दीया बताई।
कम थिर बैसि बिछारिया, रामहि ल्यौ लाई।
झूठी अनभै बिस्तरी सब थोथी बाई॥
कहै कबीर सकति कछु नाही, गुरु भया सहाई॥
आँवण जाँणी मिटि गई, मन मनहि समाई॥156॥

संतो सो अनभै पद गहिये।
कल अतीत आदि निधि निरमअ ताकूँ सदा विचारत रहिये॥टेक॥
सो काजी जाकौं काल न ब्यापैं, सो पंडित पद बूझै।
सो ब्रह्मा जो ब्रह्म बिचारै, सो जागी जग सूझै॥
उदै न अस्त सूर नहीं ससिहर, ताकौ भाव भजन करि लीजै।
काया थैं कछु दूरि बिचारै, तास गुरु मन धीजै॥
जार्यौ जरै न काट्यो सूकै, उतपति प्रलै न आवै।
निराकार अषंउ मंडल मैं, पाँचौ तत्त समावै॥
लोचन अचित सबै अँधियारा, बिन लोचन जग सूझै।
पड़दा खोलि मिलै हरि ताकूँ, जो या अरथहिं बूझै॥
आदि अनंत उभै पख निरमल, द्रिष्टि न देख्या जाई।
ज्वाला उठी अकास प्रजल्यौ, सीतल अधिक समाई॥
एकनि गंथ बासनाँ प्रगटै जग थैं रहै अकेला॥
प्राँन पुरिस काया थैं बिछुरे, राखि लेहु गुर चेला।
भाग भर्म भया मन अस्थिर, निद्रा नेह नसाँनाँ॥
घट की जोति जगत प्रकास्या, माया सोक बुझाँनाँ।
बंकनालि जे संमि करि राखै, तौ आवागमन न होई॥
कहैं कबीर धुनि लहरि प्रगटी, सहजी मिलैगा सोई॥157॥

जाइ पूछौ गोविंद पढ़िया पंडिता, तेराँ कौन गुरु कौन चेला।
अपणें रूप कौं आपहिं जाँणें, आपैं रहे अकेला॥टेक॥
बाँझ का पूत बाप बिना जाया, बिन पाऊँ तरबरि चढ़िया।
अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया, बिन षडै संग्राम जुड़िया॥
बीज बिन अंकुर पेड़ बिन तरवर, बिन साषा तरवर फलिया।
रूप बिन नारी पुहुप बिन परमल, बिन नीरै सरवर भरिया॥
देव बिन देहुरा पत्रा बिन पूजा बिन पाँषाँ भवर बिलंबया।
सूरा होइ सु परम पद पावै, कीट पतंग होइ सब जरिया॥
दीपक बिन जोति जाति बिन दीपक, हद बिन अनाहद सबद बागा।
चेतनाँ होइ सु चेति लीज्यौं, कबीर हरि के अंगि लागा॥158॥

पंडित होइ सु पदहि बिचारै, मूरिष नाँहिन बूझै।
बिन हाथनि पाँइन बिन काँननि, बिन लोचन जग सूझै॥टेक॥
बिन मुख खाइ चरन बिनु चालै, बिन जिभ्या गुण गावै।
आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिही फिरि आवै॥
बिनहीं तालाँ ताल बजावै, बिन मंदल षट ताला।
बिनहीं सबद अनाहद बाजै, तहाँ निरतत है गोपाला॥
बिनाँ चोलनै बिनाँ कंचुकी, बिनही संग संग होई।
दास कबीर औसर भल देख्या, जाँनैगा जस कोई॥159॥

है कोइ जगत गुर ग्याँनी, उलटि बेद बूझै।
पाँणीं में अगनि जरैं, अँधरे कौ सूझै॥टेक॥
एकनि ददुरि खाये, पंच भवंगा।
गाइ नाहर खायौ, काटि काटि अंगा॥
बकरी बिधार खायौ, हरनि खायौ चीता।
कागिल गर फाँदियिा, बटेरै बाज जीता॥
मसै मँजार खायौ, स्यालि खायौ स्वाँनाँ।
आदि कौं आदेश करत, कहैं कबीर ग्याँनाँ॥160॥

ऐसा अद्भुत मेरे गुरि कथ्या, मैं रह्या उमेषै।
मूसा हसती सौ लड़ै, कोई बिरला पेषै॥टेक॥
उलटि मूसै सापणि गिली, यहु अचिरज भाई।
चींटी परबत ऊषण्याँ, ले राख्यौ चौड़ै॥
मुर्गी मिनकी सूँ लड़ै, झल पाँणौं दौड़ै।
सुरहीं चूँषै बछतलि, बछा दूध उतारै।
ऐसा नवल गुँणा भया, सारदूलहि मारै।
भील लूक्या बन बीझ मैं ससा सर मारै॥
कहै कबीर ताहि गुर करौं, जो या पदहि बिचारै॥161॥

अवधू जागत नींद न कीजै।
काल न खाइ कलप नहीं ब्यापै देही जुरा न छीजै॥टेक॥
उलटी गंग समुद्रहि सोखै ससिहर सूर गरासै।
नव ग्रिह मारि रोगिया बैठे, जल में ब्यंब प्रकासै॥
डाल गह्या थैं मूल न सूझै मूल गह्याँ फल पावा।
बंबई उलटि शरप कौं लागी, धरणि महा रस खावा॥
बैठ गुफा मैं सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै।
उलटैं धनकि पारधी मार्यौ यहु अचिरज कोई बूझै॥
औंधा घड़ा न जल में डूबे, सूधा सूभर भरिया।
जाकौं यहु जुग घिण करि चालैं, ता पसादि निस्तरिया॥
अंबर बरसै धरती भीजै, बूझै जाँणौं सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई॥
गाँवणहारा कदे न गावै, अणबोल्या नित गावै।
नटवर पेषि पेषनाँ पेषै, अनहद बेन बजावै॥
कहणीं रहणीं निज तत जाँणैं यहु सब अकथ कहाणीं।
धरती उलटि अकासहिं ग्रसै, यहु पुरिसाँ की बाँणी॥
बाझ पिय लैं अमृत सोख्या, नदी नीर भरि राष्या।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाष्या॥162॥

राम गुन बेलड़ी रे, अवधू गोरषनाथि जाँणीं।
नाति सरूप न छाया जाके, बिरध करैं बिन पाँणी॥टेक॥
बेलड़िया द्वे अणीं पहूँती गगन पहूँती सैली।
सहज बेलि जल फूलण लागी, डाली कूपल मेल्ही॥
मन कुंजर जाइ बाड़ा बिलब्या, सतगुर बाही बेली।
पंच सखी मिसि पवन पयप्या, बाड़ी पाणी मेल्ही॥
काटत बेली कूपले मेल्हीं, सींचताड़ी कुमिलाँणों।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, सहज निरंतर जाँणीं॥163॥
टिप्पणी: ख-जाति सिमूल न छाया जाकै।