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छोटे से बिन्दु में विशाल स्वप्न / लोकनाथ यशवंत

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रात का प्रत्येक पहर, शाम की उदासीनता से भरा हुआ,
बड़े घरों के दरवाज़े इतने छोटे कि सीधे होकर आप भीतर जा ही नहीं सकते
ऊँची इमारत की लकड़ी की सीढ़ियाँ भी सड़ी हुईं
बीच-बीच की कुछ सीढ़ियाँ ग़ायब भी
खिड़की के छेद से भी आवाज़ नहीं दे सकते कहीं बाहर

००

एक स्वप्न ख़त्म हुआ कि दूसरा शुरू
बेमौसम बारिश भी आ जाती है, किसी भी गाँव में
छायादार जवान पेड़ों की छाँव भी जड़ से हो गई है ग़ायब

००

जो भी आता है, अपने मन जैसा करके जाता है,
न मुझे दौड़ना आता है, न मेरे हाथों का स्पर्श तुझे हो पाता है
कंठ फाड़कर आवाज़ देता हूँ, तो वह आवाज़ भी नाभिस्थल में जाकर
ग़ायब हो जाती है

अब कहीं थोड़ी-सी आँख खुल रही है,
अब कहीं थोड़ा-सा मन की तरह हो रहा है
मेरे लोगों का मोर्चा पहली बार कचहरी की ओर जा रहा है ।


मूल मराठी से अनुवाद : सूर्यनारायण रणसुभे