हमारे बीच पसरी
सैकड़ों कोस लम्बी ख़ामोशी
टूट सकती थी
पत्तों की खडखडाहट से
नदी की कल-कल ध्वनि
तोड़ सकती थी
सन्नाटे को
परन्तु
हमारे बीच
कोई सूखा पत्ता
नहीं आया उड़ते-उड़ते
कोई नदी नहीं बही
हमारे बीच
हम
चुपचाप अपनी-अपनी गुफ़ाओं में दुबके
अपनी नाराज़गियों का बोझ ढोते
और उदास हो जाते हैं
हम उठते हैं
अपने कपड़ों से धूल झाड़ते हुए
हम धूल झाड़ते हैं
उन नाराज़गियों को नहीं झाड़ते
जिनके लिए
हम
पत्तों और नदी की बाट जोहते हैं
हम नाराज़गियों के चंद क्षणों को
प्रेम की सदियों से लड़ाकर
प्रेम को पराजित करने लगते हैं