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चाकर कवि / केदारनाथ अग्रवाल

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कवि पैसों का
चाकर होकर
पैसों पर दम तोड़ेगा
पैसों के
दाँतों के नीचे
अपनी हड्डी फोड़ेगा

आग
न उगलेगा
कविता से
वह मरघट में रोएगा
जिंदा
जीवन के खेतों में
मुरदा आँसू बोएगा
मुरदा फूलों की पंखुड़ियाँ
बासी खुशबू
बेचेगा
रात
अँधेरी ओढ़े-ओढ़े झूठे सपने देखेगा
नंगे
भूखे प्यासे जग में
ऊबे
मन में
डूबेगा
मुरदाघर की
किन्नरियों के ओठों से रस चूसेगा
बंद पिटारे के अंदर ही
सारी दुनिया
घूमेगा
बंधन
बेड़ी
हथकड़ियों को
बेतड़काए चूमेगा
कायर
कोढ़ी
और निकम्मा
शब्दों को शरमाएगा
पतझर के
आँगन में बैठा
भिक्षुक बनकर गाएगा

आज नहीं तो
कल निश्चय ही
चाकर कवि
मर जाएगा
मुक्त मही का
मुक्त महाकवि
सूरज को शरमाएगा

रचनाकाल: संभावित १९५१