भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी, ख़ुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए / कुमार अनिल

Kavita Kosh से
Kumar anil (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:04, 29 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए फूलों जैसे लोग भी जान…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी खुशियाँ अपने सपने सब के सब बेकार हुए
फूलों जैसे लोग भी जाने क्यों जलते अंगार हुए

अपने ही कुछ भाई आकर दुश्मन के बहकावे में
अपने घर के टुकड़े टुकड़े करने को तैयार हुए

पुल होने का दावा करते फिरते हैं जो यहाँ- वहां
तेरे मेरे बीच में अक्सर लोग वही दीवार हुए

अज़ब बात है जब भी सोचा, कुछ दुनिया का हाल सुनें
सदा लूट व हत्याओं की खबरों से दो चार हुए

वहाँ वहाँ सूरज के आगे कोई बादल आ ठहरा
इस बस्ती में जहाँ सवेरा होने के आसार हुए

जो इस्पाती ढाल बने थे कभी हमारे सीने पर
जाने क्या हो गया उन्हें अब लोग वही तलवार हुए

इतनी बार खरीदे बेचे गए कि अब ये लगता है
जैसे हम इक जिन्स हुए हों, सब रिश्ते बाज़ार हुए