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वन झरने की धार / अज्ञेय

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मुड़ी डगर
मैं ठिठक गया
वन-झरने की धार
साल के पत्ते पर से
झरती रही

मैने हाथ पसार दिये
वह शीतलता चमकीली
मेरी अंजुरी
भरती रही

गिरती बिखरती
एक कलकल
करती रही

भूल गया मैं क्लांति, तृषा,
अवसाद,
याद
बस एक
हर रोम में
सिहरती रही

लोच भरी एडि़याँ
लहराती
तुम्हारी चाल के संग-संग
मेरी चेतना
विहरती रही

आह! धार वह वन झरने की
भरती अंजुरी से
झरती रही

और याद से सिहरती
मेरी मति
तुम्हारी लहराती गति के
साथ विचरती रही

मैं ठिठक रहा
मुड़ गयी डगर
वन झरने सी तुम
मुझे भिंजाती
चली गयीं
सो... चली गयीं...