भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब कभी देखो / मोहन सपरा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:25, 2 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन सपरा }} {{KKCatKavita}} <poem> '''1.''' जब कभी देखो आसमान से गि…)
1.
जब कभी देखो
आसमान से गिरते
पक्षी को
तो समझ लो
किसी गिद्ध ने आँख खोली है
उसे पकड़ो !
2.
जब कभी देखो
वृक्ष के पीले पड़ रहे
पत्तों को
तो हाथ उठाओ
और जंगल को ललकारो !
3.
जब कभी देखो -
नदी का जल
रुक-रुक कर चले
तो उठो
और नदी में कूद जाओ ।
4.
जब कभी देखो -
धरती की मिट्टी तक तड़पे
तो साँसों को
छत बनने दो ।
5.
जब कभी देखो-
धूप के बदलते रंग को
तो ढूँढ़ो
पूरे देश में
कौन सूरज की तरफ़ देख रहा है