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मुड़ गए जो / माहेश्वर तिवारी
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मुड़ गए जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ़,
ले गए वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ़ ।
आहटें होने लगीं सब
चीख़ में तब्दील,
हैं टंगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील,
मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुए कल की तरफ़ ।
हैं खडे़ कुछ लोग इस
अंधे कुएँ के पास,
रोज़ जिससे है निकलती
एक फूली लाश,
फेंक देते हैं उठाकर
जिसे हलचल की तरफ़ ।