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शायद कोहरे में न भी दीखे / नागार्जुन

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रचनाकार: नागार्जुन

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वो गया

वो गया

बिल्कुल ही चला गया

पहाड़ की ओट में


लाल-लाल गोला सूरज का

शायद सुबह-सुबह

दीख जाए पूरब में

शायद कोहरे में न भी दीखे !

फ़िलहाल वो

डूबता-डूबता दीख गया !

दिनान्त का आरक्त भास्कर

जेठ के उजले पाख की नौवीं साँझ

पसारेगी अपना आँचल अभी-अभी

हिम्मत न होगी तमिस्रा को

धरती पर झाँकने की !

सहमी-सहमी-सी वो प्रतीक्षा करेगी

उधर, उस ओर

खण्डहर की ओट में !

जी हाँ, परित्यक्त राजधानी के

खण्डहरोंवाले उन उदास झुरमुटों में

तमिस्रा करेगी इन्तज़ार

दो बजे रात तक

यानि तिथिक्रम के हिसाब से,

आधी धुली चाँदनी

तब तक खिली रहेगी

फिर, तमिस्रा का नम्बर आएगा !

यानि अन्धकार का !


1984 में रचित