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कविता से लंबी उदासी / विमलेश त्रिपाठी

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कविताओं से बहुत लंबी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है

मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ

मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आँत है
बहन की सूनी माँग है
कपनी से निकाल दिया गया मेरा बेरोज़गार भाई है
राख की ढेर से कुछ गरनी उधेड़ती
माँ की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीली गंध नहीं पहुँचती

यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी ज़िंदगी से गायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में बहस करने लगे हैं हत्यारे

क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झकझोरती
खेतों की लंबी पगडंडियों के लिए
मेरी कविता में कितनी जगह है

कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असंभव

(वहाँ कितनी उदासी होगी
जहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर
समझाते होंगे आसमान की परिभाषा
तोरों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति)

कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आँत रोटी-रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोज़गार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन औरत से धर्मशाला में तब्दील हो जाती है

क्या करूँ कि कविता से लंबी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ??