भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम कहते हैं बात बराबर / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

Kavita Kosh से
SATISH SHUKLA (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:49, 7 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब' | संग्रह = }} {{KKCatGhazal}} <poem> हम कहते …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


हम कहते हैं बात बराबर
छोटी बड़ी है जात बराबर
 
माँ और बाप हैं इक जुड़वां के
पैदा साथ न तात बराबर
 
दोनों हैं इक डाल के पत्ते
दोनों की क्या बात बराबर
 
देखो गज मूषक में अन्तर
कब दोनों के दांत बराबर
 
बाप हैं दस के निर्वंसी भी
होंगे कैसे नात बराबर
 
काक और कोयल दोनों बोलें
कहिये क्यों न गात बराबर
 
होता है इक रोज बरस में
जिसका दिन और रात बराबर
 
चाहे खा लें काजू पिस्ता
है सबकी अवकात बराबर
 
कोइ न जाने किस जा खड़ी है
मौत लगाए घात बराबर
 
नैन 'रक़ीब' सजल हैं तेरे
क्यों ना हो फिर मात बराबर