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रात ही है यह विरह की / केदारनाथ अग्रवाल

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रात ही है यह विरह की आज ऐसी
प्रियतमा न कोई पाता

बंद कलियों की सुकोमल पालकी दे
पवन को उपवन बुलाता
पर न सौरभ-संगिनी का एक क्षण भी
वह उसे दर्शन दिलाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।

मार्ग निर्झर के तरलतर हैं अनेकों
मेरु हृत्तल पर दिखाता
पेड़ सब बिछुड़े खड़े कर, पर उन्हें
बेहद विकल निश्चल बनाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।

व्योम-गंगा में सहस्रों तारकों की-
नाव प्रेमी दल चलाता
डूब जातीं वे वहीं पर, डूब जाता दल वहीं पर छटपटाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।