भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात ही है यह विरह की / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:49, 9 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=कुहकी कोयल खड़े पेड़ …)
रात ही है यह विरह की आज ऐसी
प्रियतमा न कोई पाता
बंद कलियों की सुकोमल पालकी दे
पवन को उपवन बुलाता
पर न सौरभ-संगिनी का एक क्षण भी
वह उसे दर्शन दिलाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।
मार्ग निर्झर के तरलतर हैं अनेकों
मेरु हृत्तल पर दिखाता
पेड़ सब बिछुड़े खड़े कर, पर उन्हें
बेहद विकल निश्चल बनाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।
व्योम-गंगा में सहस्रों तारकों की-
नाव प्रेमी दल चलाता
डूब जातीं वे वहीं पर, डूब जाता दल वहीं पर छटपटाता
रात ही है यह विरह की आज ऐसी प्रियतमा कोई न पाता।