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हाइपीरियन का पहला स्टैंजा / केदारनाथ अग्रवाल

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‘हाइपीरियन’ का पहला स्टैंजा

गिरि गह्वर के गगन छाँह छाए विषाद में
पूरा डूबा, दूर प्रात की स्वस्थ स्वास में
दूर प्रखर मध्याह्न-ताप-संध्या-तारा से
शिला खंड-सा जड़ बैठा था श्वेत-केश शनि
निज निवास के अनालाप-सा वाणी वंचित;
वन-पर-वन सिर के समीप थे घन-पर-घन से।
जीवन भी ऐसा अक्षम था जैसा अक्षम
ग्रीष्म दिवस में होके हटाए नहीं बीज लघु
पंखिल शाद्वल के शरीर को धीमें छूकर
उपरत पात पड़ा था भू पर जहाँ गिरा था।
निर्झर भी निःस्वन बहता था वहीं निकट से
अधिकाधिक जड़ जठर रूप धर तम-सा फैला,
निज देवत्व-पतन पीड़न के कटु कारण से
जल की परी घिरी नरकुल के बीच अकेली
ओठों पर तर्जनी हिमानी धरे खड़ी थी।

रचनाकाल: ०८-०२-१९५७