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वे / केदारनाथ अग्रवाल
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हमने गाए गान मही के
मन के गाए छन्द
महाकाल से वे टकराए
नहीं हुए निस्पंद
वही बने दिशि-दिशि के गायन
अंतहीन आनंद
वही बने प्रमुदित फूलों के अंगों का
मकरंद।
रचनाकाल: ३०-०७-१९६२