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वह न जाएँगे अभी / केदारनाथ अग्रवाल

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वह न जाएँगे
अभी
जाना है
जिन्हें
कभी
मौत के घर
मौत के पास
चुप
चुप
गुप
चुप।
मर मर मर।
ढले
फिर ढले
पहाड़ी की बर्फ
गले
फिर गले
पिघले
पिघले
पिघले
वह
न जाएँगे
अभी
जाना है
जिन्हें
कभी
मौत के घर
मौत के पास
चुप
चुप
गुप
चुप
मर
मर
मर

वह
न शाम है
न बर्फ
कि ढलें
फिर ढलें
गलें
फिर गलें
पिघलें।
उनकी मछली
समुद्र चीरती है
अभी
अभी
अभी
नीला गहरा
अथाह ठहरा
जिसे मौत नहीं चीरती
कभी कभी कभी।

रचनाकाल: १९-०२-१९६७