भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैंने अब तक मति बेची है / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:37, 9 जनवरी 2011 का अवतरण ("मैंने अब तक मति बेची है / केदारनाथ अग्रवाल" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))
मैंने
अब तक
मति बेची है
सात साल तक
कीलित रहकर
मन की मुक्त
प्रकृति बेची है
हर हफ़्ते के
सोमवार से शुक्रवार तक
मैंने अपने
हर सूरज को
चालिस रूपए में बेचा है
और शनीचर के सूरज को
उससे आधे में बेचा है
छुट्टी का इतवारी सूरज
बेच न पाया
मेरे कोई काम न आया
रचनाकाल: १८-०६-१९७०