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आदमी नहीं हो पाया आदमी / केदारनाथ अग्रवाल

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अब तक अब तक, इस सदी के इस वर्ष तक
आदमी होते-होते भी
आदमी नहीं हो पाया आदमी,
चाहे आदमी ने आदमी होने का मुखड़ा भले ही लगाया हो
या कि उसने आदमी का जिस्म पहन ही क्यों न लिया हो
और आदमी की नकल में
हूबहू आदमी ही क्यों न हो गया हो,
सिर से पैर तक-अगल से बगल से
भीतर से बाहर से
आदमी की औलाद क्यों न बन गया हो
और हरकत और हालत से
चाहे हिल्ले हवाले से
आदमी होने का भ्रम भी उसने फैलाया हो
सिर को जमीन तक सिजदे में चाहे जिंदगी भर झुकाया हो
मंदिर में पान-फूल-बेलपत्र चाहे दूध और पैसा चढ़ाया हो,
याचना में दोनों हाथ खोले हुए चाहे
भक्ति की भावना से गिड़गिड़ाया हो
चाहे चंद्रमा पर चढ़ा या कि आदमी होने के दंभ में
उसने प्रकृति को बंदिनी बनाया हो
चाहे भू-गर्भ में गया हो और पाताल तोड़कर
पाताली संपदा चुरा लाया हो
यंत्र मानव को जन्म देकर
चाहे उसे सर्वोपरि बनाया हो।