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वक्त ऐसा है / केदारनाथ अग्रवाल

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वक्त है ऐसा कि जैसे इंद्रियों का रक्त है
और मेरी आयु उसमें डूबती-ही-डूबती ही जा रही है।
दर्द ऐसा है कि जैसे काटने का अस्त्र है
और मेरी साँस उससे टूटती ही-टूटते ही जा रही है॥

रचनाकाल: संभावित १९५७