भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यात्राएँ-1 / अशोक भाटिया
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:30, 11 जनवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अशोक भाटिया |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> तुम तीनों किधर ज…)
तुम तीनों
किधर जा रहे हो भाई ?
उधर पतझड़ है
रेत की चमक है
अँधेरा है
तुम तीनों
किधर जा रहे हो भाई ?
एक तुम
जो सिर्फ़ बोल लेते हो
और बोलते–बोलते
सब सोख लेते हो
और तुम, जो देख लेते हो
और बस सोच लेते हो
और एक तुम
जो निचोड़कर डाल दिए जाते हो
कँटीले तारों पर सूखने को
जो सब सह लेते हो
किसी तरह बह लेते हो
तुममें से
मुँह से
सोच से
हाथ से
पूरा आदमी कौन है
पूरा आदमी बनेगा
सोच को हाथ
हाथ को सोच का साथ देने में
सोच और हाथ को
अपनी आव़ाज देने में
पूरा आदमी बनेगा!
तुम तीनों
किधर जा रहे हो भाई ?