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पहाड़ : दो कविताएँ / अशोक भाटिया
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1.
एक पहाड़ यह है
कंधों को दूर तक फैलाए
मौसम की बर्फ़ को
अपनी हरियाली पर झेलता हुआ
यह पहाड़ वह है
अपनी हरियाली में आकण्ठ डूबा
मौसम के सामने कंधे झुकाए
बर्फ़ को ज़मीन पर धकेलता हुआ
तुम्हें कैसा पहाड़ बनना है ?
2.
अपनी ज़मीन पर
मज़बूती से क़दम रख
आदमी उठता है सतह से ऊपर
तो बनता है एक मज़बूत पहाड़
मज़बूत पहाड़ ही महान होता है
देता है दिल में जगह
लोगों को उठाता है अपने कंधों पर
पहाड़ की तरह
मज़बूत आदमी ही
ख़ुशगवार मौसम के लिए
फैलाता है हरियाली