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प्रताप की बलिदान कहानी ! / मनुज देपावत

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दीप शिखा के परवाने की यह बलिदान कहानी है !
यह बात सभी ने जानी है !

अत्याचारी अन्यायी ने अन्याय किया भारत भू पर ।
डोली थी डगमग वसुंधरा, वह काँप उठा ऊपर अम्बर !!
माता के बँधन कसे गए, झनझना उठी थी हथकड़ियाँ ।
बज उठी बेड़ियाँ पैरों की, लग गई आँसुओं की झड़ियाँ ।।
रोटी जननी को दानव ने कारागृह में कर दिया बंद ।
रुक गए गीत आज़ादी के, रुक गए कवि के प्रलय छंद ।।
हँस उठा ब्रिटिश साम्राज्यवाद, दोनों का उसने किया नाश ।
भारत के कोने-कोने में गूँजा था जिसका अट्टहास ।।
सुन आर्यभूमि का आर्तनाद, उठ गए देश के दीवाने ।
जल उठी काल लपटें कराल, आ गए शमा पर परवाने ।।
चुप रह ना सका सौदा प्रताप, जग उठा जाति का स्वाभिमान ।
जगती तल के इतिहासों में, गूँजे थे जिसके कीर्ति-गान ।।

आखिर चारण का बच्चा था, वह वीर " केसरी" का सपूत ।
पद दलित देश की धरती, वह उतरा बनकर क्रांतिदूत ।।
उसने "करणी" का नाम लिया, उसने माता का नाम लिया ।
कवि के बच्चे के मुक्त कंठ ने इन्क़लाब का गान किया ।।
वह देख रहा था दानव को, निर्दोषों पर गिर रही गाज ।
वह देख रहा था बहनों की, जो खुले आम लुट रही लाज ।।
सुनता था अपने भारत में, असहाय नारियों का क्रंदन ।
जब हँसी-ख़ुशी की ध्वनियों से था गूँज रहा उनका लन्दन ।।
वह सह ना सका, उठ खड़ा हुआ, उन दहक रहे अंगारों में ।
शासक के अत्याचारों में, उसकी तीखी तलवारों में ।।

उसके उन्मादक गीतों से, जग उठी जेल की दीवारें ।
वह काँप उठा अत्याचारी, थी बंद हो गई हुंकारें ।।
कुछ सिहर उठा था सिंहासन, था उदित हो गया क्रुद्ध श्राप ।
उस आन्दोलन की ज्वाला से, पापी का जलने लगा पाप ।।
पर अत्याचारी शासक ने धोखे से उसको पकड़ लिया ।
दहाड़ते सिंह के श्रावक को, था ज़ंजीरों में जकड़ लिया ।।
वह क़ैदी था पर झुका नहीं, था अडिग रहा देशाभिमान ।
वह बंदी था पर झुका नहीं, क्या हुई भावनाएँ ग़ुलाम ।।
रोती है अब माता तेरी, क्या होगा उसके सपनों का ।
पूछा अँग्रेज़ों ने उससे, बस, नाम बता दे अपनों का ।।
रोती है गर माता मेरी, तो मैं सहने को हूँ तत्पर ।
रोएँगी लाखों माताएँ, सह सकता ऐसा मैं क्योंकर ।।
चल पड़ा दनुज का दमन चक्र, उसकी नृशंसता कठिन-क्रूर ।
पिस गई मनुज की मानवता, होकर पाँवों में चूर-चूर ।।
कारा की कठिन यातना से, कट गया गात उसका कोमल ।
अत्याचारों की आग जला वह पुष्प गया ज्वाला में जल ।।
उसके ज्वलंत अरमानों का, हो गया भव्य प्रासाद ध्वस्त ।
हो गया जेल के आँगन में, वह "सौदा" कुल का सूर्य अस्त ।।
खो गया देश का वह वैभव, माता ने खोया था सपूत ।
था मरा नहीं वह अमर हुआ, चिर स्मरणीय ! वह क्रांति-दूत ।।

फिर एक दिवस ऐसा होगा, चारण-वाणी की आग जलेगी ।
सकल चिताएँ भभक उठेंगी, उस शहीद की राख जलेगी ।।
तब होगा प्रतिकार हमारा, मन की साध मिटानी है ।
दीप शिखा के परवाने की यह बलिदान कहानी है !!
यह बात सभी ने जानी है.!