किसान / अभय मौर्य
तब मैं उम्र में बहुत छोटा था,
ढोर चराता और घास ढोता था ।
मैंने देखा था मेरे बाब्बू हल जोतकर,
बैठे थे हुक्का पीने धूल-धूसरित होकर ।
आ धमका तभी इक मोटा लाला पिल-पिला,
टाँगते हुए लांगड़, आंगळी हिला-हिला ।
हमारी धरती में ऐंठ से बेंत गाड़ते हुए,
हट्टे-कट्टे लठैत साथ ले बाब्बू को ताड़ते हुए ।
लठैत आए बैलों के पास अकड़ते हुए,
खोला उन्हें जुए से गर्दन पकड़ते हुए ।
खींच ज्योड़ों से की डंडों की बौछार,
ले चले शहर को देते गाली धुआंधार ।
गिर पांव लाला के बाब्बू गिड़गिड़ाए,
“मोहलत दे, दे हे लाला!”, वे रिरियाए ।
“अगली फसल पै सारा कर्ज चुका द्यूंगा,
ब्याज गल्लै एक-एक पाई दे द्यूंगा।”
“चल हट!” – लाला फुंफकारा,
“नहीं सै बात या मन्नै गवारा।
ना मानूं तेरी इन थोथी बात्तां नै,
कतई ना छोड्डू तेरे बौल्दां नै।”
“के करूं, लाला,” बाब्बू बोले,
“पकी फसल पर पड़गे ओले।
सोने-सी गेहूं जमीन पै लेटगी
देखते-देखते किस्मत फूटगी।”
लाला कड़का, हुंकारा, “तो मैं के करूं?
या नवी बात नईं, तेरा के कीन करूं?
कुछ ओहर हो जैगा, पाळा पड़ जैगा,
ऐग लैग जैगी, बेमौसमी मींह पड़ जैगा।
मेरे पीसे तो डूबगे, वापस मिलैंगे नहीं,
ईब भागते चोर की लंगोटी ही सही।
तेरे बौल्द ही सही, ब्याज तो मिलैगा,
साहुकारों का बुहार तो नई बिगडैगा।”
तब मैं छोटा था, पर रोया था मैं जार-जार,
उठे थे सवाल: क्यों है बाब्बू मेरा लाचार?
क्यों है निढाल मां गोबर और भरोटे ढो-ढोकर?
क्यों गिड़गिड़ाए बाब्बू लाला के पांवों में लोटकर?
और मेरे छिंदरे भी क्यों हैं चिथड़े-चिथड़े?
क्यों हैं बिन तले की जूतियां टुकड़े-टुकड़े?
क्यों सोना पड़ता है हमें अक्सर पेट काटकर?
जवाब न मिला था कोई चुप हुआ हारकर।
लाला ने लिया बाब्बू को जूते की नोक पे,
मार ठोकर, छीने बैल डंके की चोट पे।
उछाली पगड़ी बाब्बू की दी गालियां हजार,
“चोर की लंगोटी” सरे आम ली थी उतार।
उस वर्ष बाब्बू न कर पाए थे गेहूं की बीजाई,
हम सब – मां, बहन, मैं, बाब्बू और छोटा भाई,
बन लाचार टुकड़े-टुकड़े को हुए थे मोहताज।
न जला चूल्हा हमारा परसों, कल और आज।
न मिला सहारा हमें, न किसी को रहम आया,
न लाला ने, न फौजी चाचा ने तरस खाया।
बाब्बू ने डाल लिया फंदा गले में, छा गया मातम,
मां, भाई और बहन ने भी आखिर तोड़ दिया दम।
अकेला मैं किसी तरह बच गया,
मामा अपने गांव मुझे ले गया।
अब बड़ा हो गया हूं मैं, पढ़-लिख गया,
बनकर ‘साब’ बड़ा कुर्सी में धंस गया।
गांव गया था मैं हाल ही में, तो बात मुझे बताई,
छीनने ट्रेक्टर ताऊ का लठैत नहीं, पुलिस थी आई।
लाला भी आया था ब्याज और मूलधन वसूलने,
नए ‘चोर’ की लंगोटी उतारकर पगड़ी उछालने।
ताऊ बेचारे हुए थे निढाल और लाचार,
डाला उसने भी गले में अपनी ही पगड़ी का हार।
उनकी अपनी पगड़ी बनी स्वर्ग की पींग,
झूलकर उस पर वे सो गए गहरी नींद।
समझ में लगी हैं बातें अब आने,
नए नहीं ये, हैं सवाल वही पुराने।
देते दर्द असह्य, रहे हैं वर्षों से झकझोर,
आता कलेजा मुंह को, न कोई ओर, न छोर।
क्यों झूले मेरे बाब्बू हल की रस्सी से?
क्यों लटके ताऊ, चाचा अपनी पगड़ियों से?
क्यों उछलती है पगड़ी हाळियों की?
क्यों झुलसती है चमड़ी पाळियों की?
क्यों फलते-फूलते हैं सदा ये मोटे लाला पिलपिले?
क्यों चलते हैं निरंतर कमेरों की मौत के सिलसिले?
क्यों दाने-दाने को मोहताज बच्चों ने हैं हाथ पसारे?
क्यों मजे में हैं दलाल, सूदखोर, हाकिम, लुटेरे ये सारे?
पर जवाब मिलता है कि इंडिया चमक रहा है,
बन विश्व सितारा महान भारत दमक रहा है।
जीते हैं हम कारगिल, खदेड़ दिया सभी पाकियों को,
श्रेय रक्षामंत्री, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और साथियों को।
पहनकर निक्कर कर लेते हैं देशभक्ति पर वे एकाधिकार,
किया जिन्होंने मजदूरों को लहूलुहान, किसानों को लाचार।
खेत रहे बहादुर सिपाहियों को भूल जाते हैं सब,
खेत-खलिहानों के बेटों को याद करते हैं कब?
आज भूखे पेटों को परोसे जाते हैं आंकड़े,
आठ, नौ, दस प्रतिशत इतराते हैं आंकड़े।
कितनी बड़ी विडंबना है कि झूठ में है दम,
कि दमक रहा है भारत, जुल्म हैं इसमें कम।
हो गया हूं मैं सयाना, अक्सर सोचता हूं,
सिहर उठता हूं, बाल अपने नोचता हूं।
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,
नहीं सिसकेंगे और अब, नहीं है होंठ सीना।
घुट-घुटकर जीना भी है कोई जीना?
लुटेरे करें मौज, हमें है जहर पीना?
फांसी से तो बेहतर है संघर्ष का बिगुल बजाना,
लड़ते हुए पगड़ी संभालना या शहीद हो जाना।