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खोज ली पृथ्वी / नंद भारद्वाज
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तुम्हारे सपनों में बरसता धारो–धार
प्यासी धरती का काला मेघ होता
उन उर्वर हलकों से लौट कर आता
रेतीले टीबों के अध–बीच
तुम्हारी जागती इच्छाओं में सपने सवाँरता
अब तो किरची–किरची हो गया है
मेरा वह उल्लास
और मन्दी पड़ती जा रही है
तुम्हारे चूड़े की मजीठ (रक्तिम–आभा)
फिर भी जद्दोजहद में पचते आखी उम्र
हमने आकाश और पाताल के बीच
खोज ही ली पृथ्वी ।