जो टूट गया है भीतर / नंद भारद्वाज
एक अवयव टूट कर बिखर गया है कहीं भीतर
लहूलुहान सा हो गया है मेरा अन्तः करण
पीड़ा व्यक्त होने की सीमा तक,
आकर ठहर गई है।
कुछ देर और इसी तरह मुस्कुराते रहना है मुझे
इसी सयानी दुनिया में निस्संग
सहज ही बने रहना है
सफर में, बाकी बरस कुछ और
क्या फर्क पड़ता है नदी की शान में,
कितना बदल गया है मेरा अहसास
किसे परवाह!
क्यों पीली पड़ गई दिखती हैं
भरी दोपहर में दरख्.तों की हरी पत्तियाँ
सड़कों पर दूर तक दहशत
और दरारें निकल आई हैं परकोटे की भींत में
सहम गई हैं उजड़े हुए किले की पुरानी दीवारें
कहीं भूकम्प आने को है शायद
समय के गर्भ में।
यह दृश्य इतना बेरंग तो नहीं दिखा था कभी
इतनी हताश तो नहीं दिखी थी
चाँद और सूरज की रौशनी,
नदी उलट कर लौटने लगी है
अपने ही उद्गम की ओर।
धुआं आसमान से उतर कर
समाने लगा है चिमनी की कोख में।
अपनी उड़ान बीच ही में समेट
उतर आए हैं असंख्य पक्षी
इस सूखे बंजर ताल में,
तुम क्यों उदास होती हो
तुम्हें तो मिल ही जाएगी
अपने हिस्से की ठण्डी झील
– हरी संवेदना
मुँह अँधेरे उड़ जाना उगते सूरज की सीध
पलट कर भी न देखना
इस उजाड़ बंजर ताल को आँख भर ,
तुम किस–किस के लिये करोगी पछतावे
किसके आहत होने का रखोगी ख़याल
अपनी करवट बदलती दुनिया में,
जो टूट गया है अवयव
किसी के भीतर, उसे उबर कर आने दो
अपनी आत्म पीड़ा से
सहने दो अपने हिस्से का अवसाद
चुन लेने दो जीये हुए अनुभव का कोई अंश
शायद बच रहा हो कहीं एक संकल्प
– शेष संभावना।