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सुबह / केदारनाथ अग्रवाल

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सुबह!
न निकले सूर्य की
केवल,
उत्तर के केसरिया रंग की-
आ बैठी
मेरी आँखों में
और मुझे अपनाए है।

मैं उसका हूँ,
वो मेरी है,
दिशा-दिशा में,
रोम-रोम में,
पुलक व्याप्त है।

अब, ज्यों ही सूरज निकलेगा
मैं स्वागत
तत्काल करूँगा
लोकालोकित लय में
दिन भर सृजन करूँगा,
रवि-रंजित
जीवंत जिऊँगा।

रचनाकाल: १७-१०-१९९१