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सागर तट पर / केदारनाथ अग्रवाल

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देह मिली हो
पानी-ही-पानी की तुमको!
इसी देह से तरुण तरंगित
घोड़ों को तुम
बे लगाम दौड़ाते हो,
और,
चौकड़ी भरते हिरनों की
रंगरेली दिखलाते हो,
नीलकाय तुम श्वेतकाय हो
फेन-फेन बन जाते हो
किंतु चेतना नहीं प्राप्त कर पाते हो
आदिकाल से अब तक केवल
प्राकृत जीवन जीते हो
महासिंधु-सागर-पयोधि, बस,
कहलाते हो,
आज तुम्हारे तट पर आकर,
मैंने तुमको अपनाया है,
और तुम्हारी ऊर्जा को
अपनी ऊर्जा में बदल लिया है
अब मैं बूढ़ा महाकाल से नहीं डरूँगा
लड़ते-लड़ते, जीते-जीते नहीं
मरूँगा।

रचनाकाल: ०४-०३-१९९२