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दिक्काल का भोक्ता अहं / केदारनाथ अग्रवाल

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दिक् काल का भोक्ता अहं
जब
निजत्व की इकाई होकर,
दिक्-काल का निषेध कर,
खोखली आत्मवत्ता में
स्वयं समाया होता है
तब वह
नवाचारी होकर-
अनाचारी होकर-
मानवीय बोध से
वंचित और विरत होता है
विशाल वटवृक्ष से
टूटकर गिरा पत्ता होता है,
निरवलम्ब होता है,
इधर-से-उधर-
दिशा दृष्टिहीन
उड़ने-भटकने को
मजबूर होता है।

रचनाकाल: ०६-०१-१९८०