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रुपहली रात / बरीस पास्तेरनाक

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मैं दृष्टिपात करता हूँ दूरस्थ विगत दिनों पर
और देखता हूँ एक भवन 'पीटर्सबर्ग कोव' के तीर पर ।
तुम बंजर ज़मीन के छोटे जोतदार की दुहिता
आई थी विद्योपार्जन के हित 'कूर्स्क' से ।

तुम रूपवती थी और तुमको प्यार करते थे तरुण जन ।
हम दोनों उस रुपहली रात को रात भर
गगन चुम्बी भवन से नीचे तकते रह गए थे
जंगले की चौखट पर बैठ कर ।

तितलियों जैसी
स्ट्रीट लैम्प की रोशनी काँप उठी थी
प्रभात के उजाले से छू जाने पर ।
मैं तुमसे बातें कर रहा था मृदु स्वर में
निद्रागत मृदु सुदूर की तरह ।

तटहीन निवा नदी के पार तक
पसरे हुए पीटर्सबर्ग की तरह
हम दोनों बँधे थे
दुबोध बन गई अपनी कातरतापूर्ण ईमानदारी में
बाहर दूर, बहुत दूर घने वन मेम
वसंत की उस रुपहली रात को
बुलबुल घोल रही थी जंगलों में
प्रकृति की प्रशंसा में अमोघ संगीत ।

पागल बना देने वाली स्वर लहरी उठती ही गई ।
अकिंचित्कर एक छोटे पक्षी के स्वर ने
जगा दिया था एक आकुल उल्लास
मंत्र-मुग्ध अरण्य के अंतर में ।

वहीं पर रात घटती गई, परिधियों पर अटक कर ।
नंगे पाँवों की आहट जैसी, खिड़की की देहली से,
हमारे प्रेमालाप का वैताल
अपने पीछे छोड़ता गया था एक ध्वनि सूत्र ।

उसकी प्रतिध्वनि की पहुँच के भीतर
सीमायुक्त उद्यानों में
कनीनिका और चेरी वृक्षों की शाखाओं पर
सज रहे थे श्वेत कुसुम ।

और सड़कों पर प्रेत जैसे
उजले खड़े वृक्षों की भीड़ बढ़ने लगी,
मानो जुट रहे थे अलविदा कहने को रुपहली रात को
जिन्होंने सुना था, देखा था बहुत कुछ ।