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दिनचर्या / अम्बिका दत्त

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उठा हूं
सिर में भारीपन है
और जिस्म में है
अकड़न सी
अंगड़ाई लेकर
चट्-चट् तोड़ता हूं
नसों के बीच में उलझी
कच्चे सूत की सुबह
और फिर यूं
टूटन से ही शुरू होता है दिन -
साधने की कोशिश करता हूं
चश्मे की कमानी पर
सूर्य का सन्देश
कलम की स्याही से
कागज की सफेदी पर।
लिखने की कोशिश करता हूं
पीले गुलाब की धातुई गंध।

यह होते ने होते
दिन भी चकरघिन्नी से घूमते
होटल के छोरे के पावों की थकान सी सांझ
घड़ी की सैकिण्ड वाली सुई पर सवार होकर
शनैः शनैः
पड़ाव डाल देती है
मेरी पलकों के ऊपर
और भौंहों की नीचे वाली जमीन पर
मजबूर सा, मैं लेट जाता हूं
एक ठण्डी, सपाट
सीमेन्ट की काली पट्टी पर
- कि अचानक
टूटता है जेहन में मेरे
एक कांच का तारा
चुभता है खुपता है
कुछ, रंगीन किरस सा -
मेरे सिर के पिछले हिस्से में
गहरी नींद में होने के बावजूद
सोच सकता हूं, में
हो न हो
यह सुबह का सपना है।