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हम ठहरे गाँव के / देवेन्द्र कुमार
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हम ठहरे गाँव के
बोझ हुए रिश्ते सब
कन्धों के, पाँव के
भेद-भाव सन्नाटा
ये साही का काँटा
सीने के घाव हुए
सिलसिले अभाव के
सुनती हो तुम रूबी
एक नाव फिर डूबी
ढूँढ लिए नदियों ने
रास्ते बचाव के
सीना, गोड़ी, टाँगे
माँगे तो क्या माँगे
बकरी के मोल बिके
बच्चे उमराव के