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बिटिया मुर्मू के लिए-1 / निर्मला पुतुल

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उठो कि अपने अँधेरे के ख़िलाफ़ उठो
उठो अपने पीछे चल रही साज़िश के ख़िलाफ़

उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो
जैसे तूफ़ान से बवण्डर उठता है
उठती है जैसी राख में दबी चिनगारी

देखो ! अपनी बस्ती के सीमान्त पर
जहाँ धराशाई हो रहे हैं पेड़
कुल्हाड़ियों के सामने असहाय
रोज़ नंगी होती बस्तियाँ
एक रोज़ माँगेगी तुमसे
तुम्हारी ख़ामोशी का जवाब

सोचो-
तुम्हारे पसीने से पुष्ट हुए दाने एक दिन लौटते हैं
तुम्हारा मुँह चिढ़ाते तुम्हारी ही बस्ती की दुकानों पर
कैसा लगता है तुम्हें जब
तुम्हारी ही चीज़ें
तुम्हारी पहुँच से दूर होती दिखती हैं ?