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ओ नभरेखा, ओ नभबाला / अनिल जनविजय

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ओ नभरेखा ! ओ नभबाला !
गुस्से में यह क्या कर डाला

चाहत तेरी बूझ रहा था
प्रेम मुझे भी सूझ रहा था
पर वे दिन भी क्या दिन थे
मैं रोटी से जूझ रहा था

मन में थी बस इतनी इच्छा
मिल जाए मुझे भी एक निवाला

रोष में थी तू दहाड़ रही थी
लपटों-सी फुफकार रही थी
ईर्ष्या में तू उन्मत्त थी ऐसे
मुझ अधमरे को मार रही थी

मैं आज भी सोचूँ क्या हुआ ऐसा
भला, मैंने ऐसा क्या कर डाला ?

1997 में रचित