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उत्सर्ग / दिनेश कुमार शुक्ल

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सनसनाती रात,
जलकर बुझ चुकी थीं
सब मशालें,
समय ऐसा था
कि जैसे खौलता जल

आन पहुंची
विदा की बेला
अकेला चल दिया वह
सिर्फ मुठ्ठी में लिये
थोड़ी हवा
अपने समय की

चल दिया वह
खोजता अपनी दिशा को
बंद आँखों में लिये सपने
अभी जो देखने थे,
टोहता था राह नंगे पाँव
खाता हुआ ठोकर
ठोकरें थी दिशा सूचक यंत्र
खोजता वह फिर रहा था
पा सके उर्वर
कहीं माहौल ऐसा
जहाँ सपने बो सके वह

सनसनाती रात थी
गहरा कुहासा था
दिशायें सो रही थीं
और सपने थे कि नंगे पाँव थे
गतिमान जैसे सूर्य के घोड़े,
कि जैसे लड़ रहा अभिमन्यु
ऐसा तुमुल, ऐसी धूल, ऐसी यात्रा थी
नाचते थे पाँव जैसे नाचती धरती

युगों तक चलता रहा संघर्ष
आया एक दिन
होने लगी एकात्म उसकी अस्मिता
संघर्ष के माहौल में
उस तुमुल में उस खोज में
आकार खोने लगी
उसकी दंभ जैसी देह

उड़ चला वह मुक्त
जैसे बीज सेमल का
संजोये हृदय में अपने
भविष्यत् का महातरू,

खो रहा था वह स्वयं को
बो रहा था वह स्वयं को
हो रहे थे इस तरह साकार
उसके स्वप्न उस भीषण तुमुल में।