भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पूस की धूप / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:05, 10 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |संग्रह=कभी तो खुलें कपाट / दि…)
खिलखिलाये न सही, पर
मोनालिसा की तरह
मुस्कुरायेगी अभी
पूस की धूप।
पड़ गया पाला हो,
सो गये हों खेत,
सोई फ़स्लों को जगायेगी
पूस की धूप।
तमाम स्वाद रंग
और सुगन्ध के सागर
पेड़ पौधों में उतारेगी यही
पूस की धूप।
घना अँधेरा हो,
मन में दिमाग में दिल में
जगमगायेगी निडर लौ की तरह
पूस की धूप।
भूले भटके जो कभी
आई खुशी
याद आयेगी हमें
पूस की धूप।
सुबह जब आनी हो
आती रहेगी ऐ दोस्तो
उसके पहले चली आयेगी
पूस की धूप।