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टिलीलिली / दिनेश कुमार शुक्ल

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बंदर चढ़ा है पेड़ पे
करता टिलीलिली
कि ये ले गुल बकावली
कि ले ले गुल बकावली।

मैं रात की पेंदी से
खुरच लाया हूँ सपने
फुटपाथ पर सोये हुए
सब थे मेरे अपने
अपनों की आँख से
मैं उठा लाया हूँ काजल
काजल की बना स्याही
और सपनों की कहानी
लिखता हूँ सुनाता हूँ
वही सबकी कहानी

पी हमने छाछ फूंककर
फिर जीभ क्यों जली।

आयेंगे अभी रात के
वो पीरो पयम्बर
हफ्ता वसूलने को वो
ख्वाबों के सितमगर
सपने न होंगे आँख में
तो क्या वसूलेंगे
गुस्से में बिफर जायेंगे
हो जायेंगे पागल

तब बच के फूट लेंगे
हम पतली कोई गली।

हम अब तक उसी घर में हैं
जो कब का गिर चुका
उस राह गुजरना
तो बुलाना कभी-कभी,
ऐ रात तुझको अपने
अंधेरों की कसम है
हमको भी अपने साथ
सुलाना कभी-कभी

‘दे जिंदगी ले नींद’ - की आवाज लगाता
अत्तार नींद बेचता फिरता गली-गली।

जो सो रहे हैं
रो रहे हैं -
खो रहे हैं लोग,
चुपचाप जो सहते हैं
वो विष बो रहे हैं लोग
कपड़े भी कातिलों के
वही धो रहे हैं लोग

इनकी है आँख बन्द
और है जुबां सिली।

तुमको न ठगे ठग
तो किसे और ठगेगा
तुमने उसे चुना
वो किसे और ठगेगा
ये कैसा शहर है कि
खुद पे तोड़ता कहर
ये कैसा समन्दर कि
लहर तोड़ती लहर
अब चुप भी रहो
कुछ न कहो सो रही है रात
जग जायेगी, टहनी भी अगर
नीम की हिली।

आलू नहीं है प्याज नहीं
राज उन्हीं का
कल जिनका राज था
है राज आज उन्हीं का
राशन खरीदना है और जेब है फटी
घरवाली क्या करे न कहे जो जली कटी,
कश्ती की बात क्या करो
याँ डूबता साहिल
लगती है गरीबी में
ये दुनियाँ सड़ी-गली

लिखता है रिसालों में
वो बातें बड़ी-बड़ी --
चांदी की उसकी खो गई थी
एक तश्तरी
तुम देखते उसने चलाई
किस तरह छड़ी
नौकर की पीठ थी
मगर चट्टान सी कड़ी,
वो तीन सौ की तश्तरी
थी गिफ्ट में मिली।

आते रहे जाते रहे
इस देश में चुनाव
नेता व नेती घूमते
घर-घर व गाँव-गाँव
ये कुछ भी कहें
मुँह से इनके निकले कांव-कांव
कौवों ने सुना जब से
वो नेतों से हैं खफ़ा
नेतों की आँख फोड़ेंगे
उनकी अगर चली।

जैसे प्रगट हों देवता
धरती पे जब कभी
वैसे ही इधर आते हैं
अफसर कभी-कभी
काजू मिठाई चाय का
जब भोग लगाकर
बैठा हुआ था हाकिम
दरबार सजाकर
चौपाल की छत से गिरी
अफ़सर पर छिपकली।

घर जा रहा था हारा थका
खत्म करके काम
सूरज को अँधेरों ने
छुरी मारी सरे शाम,
उसके लहू से लाल ज़मीं
लाल आसमान

क्या अब सुबह न आयेगी
बस रात रहेगी
कुछ दिन बस हमें
रोशनी की याद रहेगी ?

यादें भी डूब जायेंगी
क्या अंधकार में
नस्लें भी बदल जायेंगी
क्या अन्धकार में
उल्लू ही रहेंगे वहाँ
उजड़े दयार में ?

अब खेल खत्म होता है
आई चला चली।