भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौसम का आइना / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:15, 10 फ़रवरी 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=दिनेश कुमार शुक्ल |संग्रह=कभी तो खुलें कपाट / दि…)
लम्बी लड़ाई की
छोटी झड़प हारे योद्धाओं की तरह
संगठन में जुट गये हैं
फिर से
पात-झरे शीशम व नीम के
दरख्त
हवा, धूप, धरती, जल
और माहौल से एकात्म
उनकी जड़ों तनों टहनियों में
सनसनाता दौड़ता है
वसन्त की प्रतीक्षा का उद्दाम आवेग
नवयुग को जन्म देती
सभ्यता के साथ-साथ
पूरी वनराजि शाखा-प्रशाखा तक
ऐंठ-ऐंठ जाती है
प्रसव की पीड़ा में
थका किन्तु अपराजित
आदमी का मन
हर विगत पतझर
और आगत वसन्त के
आइनों में आँकता है
हार को, जीत को
और रचता है
नई मुहिम का मसविदा
आस्था के खून से
लाल नई कोपलों की तरह।