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पहाड़ की रात बरसाती / दिनेश कुमार शुक्ल
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ढाल से लुढ़कता है
एक ख़याल -
रात फिसलन भरी
हरी
गहराइयों की
कोख में
छुपे हैं सवाल
ढाल से लुढ़कता
है एक खयाल
छुपे हैं सवाल
और
गढ़वाली गीतों की
रोशनी के टुकड़े
उन्हें खोजते हैं
जैसे खोजते हैं बच्चे
खोई हुई गेंद
बारिश के पर्दे
तड़पते हैं जोर-जोर
शोर-शोर
शोर में डूबे हैं
पहाड़--
ओढ़े हुए
भेड़ों की खाल
ढाल
ढाल से लुढ़कता है
एक खयाल
आत्मायें
जुगुनू-सी
इधर-उधर उड़ती हैं
उड़ती हैं
उड़ती हैं चिन्दियाँ
अँधेरे की
देवदारु
धरती का उर्वर आक्रोश,
ऊपर
और ऊपर
उठाता है अपने हाथ
और
आकाश में
नाचती तड़ित की
हिम्मत टटोलता है।