पीकर नीली नदी
पहन कर इन्द्रधनुष
रंग ढोता, लहर भरता
एक मोर सपुच्छ सर्वांग
कर लेता है आज भी
हिंसा से भरी हुई
सड़क पार
पहली बार
पहन कर साड़ी
एक कन्या अटपटा कर
पार करती है देहरी --
लांघती है
सात द्वीप नव खण्ड
एक ही छलांग में
अकस्मात
कई साल बाद
लौटता है कवि,
धरती की सजलता में
रोपता है धान की तरह
बची खुची अपनी
कुछ पंक्तियाँ,
बाजार बनते संसार में
अब भी
कहीं-कहीं पानी है।