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हवा / दिनेश कुमार शुक्ल
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उचक उचक कर चली जा रही
हवा खिलन्दड़ बच्चे-सी
कहीं किसी का पल्लू खींचा
कहीं उछाली टोपी
सूखे बंसीवट को छेड़ा
खुद बन बैठी गोपी
रास रचाया यहाँ
सुनाई वहाँ बाँसुरी की धुन
लालपरी नाची पूरब
तो पच्छिम बाजी रूनझुन
देखो, सबकी हवा उड़ा दी
झूठे की भी सच्चे की!
ख़ालिस हवा अगर तुमको मिल जाय कहीं तो बतलाना
निर्विकार उसकी सुगंध में अगर बने तो रम जाना
महारास के सघन कुंज में मंद पवन बनकर जाना
कहीं धुंध या धुआँ न बनना, खुशबू बनकर छा जाना