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बाढ़ / दिनेश कुमार शुक्ल

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देखी हमने घरगिरी और देखा अमने बीहड़ कटाव
गंगा के ‘शांत-क्लांत’ जल का देखा हमने औघड़ बहाव
हमने देखी पलटती सूँस
हमने देखी डूबती नाव
हम सब कगार से कूद पड़े पर छुपी भँवर दे गई दाँव

यह तो कुछ चीलों ने हमको बस किसी तरह से बचा लिया
थी चटक धूप गँदला पानी चीलों ने ‘गगनमंडला’ से
हमको मंडल में देख लिया
हम भी उनकी ही तरह खा रहे थे चक्कर
चीलों की आँखों में हम भी अब चीलें थे
उनके ही गोत्रज हम अंडज
उनकी ही कोई जल-प्रजाति
हम नहीं जानते कैसे वे फिर हमको तट तक ले आईं

चीलों ने एक अदृश्य डोर के बल पर हमें बचाया था...
है एक डोर जो कृमि से, कीट-पतंगों से, चीलों से, कुत्तों गायों
होकर के हम तक आती है
हाँ वही डोर मानव की मज्जा में धँसकर मेधा में प्रेम जगाती है
हाँ जीवद्रव्य की झालर जैसी वही डोर !
वह प्रेम डोर कवियों वाली !