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तुम्हारा जाना / दिनेश कुमार शुक्ल

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ख़ुद को ख़ुद में लपेटता
लौट रहा है समुद्र-
तुम जा रही हो....

वर्ष बीत-बीत कर
एक-दूसरे में
खोते चले जाते हैं,
हर नये चन्द्रमा के साथ
उतरती है त्वचा की एक पर्त,
छीज रही है छाया
बीत रहे हैं जीवन
धुन्ध में डूबे हुए पुल पर
चलती तुम जा रही हो
ऋतुओं के प्रवाह के पार

दूसरे तट पर
विचित्र वनस्पतियाँ
तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं
कड़े हो रहे हैं उनके कॉंटे
चटक और चिपचिपे
हो रहे हैं फूलों के रंग
फलों में भरता है
ज़हरीला गाढ़ा विषाद
सूर्यास्त सूर्योदय का हाथ पकड़
नाच रहा है
तुम जा रही हो...

आठ वर्षों की
आठ पर्वतमालाओं की
आठ उपत्यकाओं की
आठ वैतरणी नदियों के पार
अन्तिम चुम्बन की अग्नि में धॅंस कर
कवि पद्माकर की गंगा में
उतरती हो तुम जल में समाती
जैसे वैदेही जाती है पृथ्वी के गर्भ में
तुम जा रही हो... जल के पाताल में

जाया नहीं जाता जिस तरह
ठीक उस तरह तुम जा रही हो,
आठ वर्षों की गहराई
वाले कालकूप में
तुम स्मृति की तरह
जा रही हो....
और जा नहीं पा रही हो