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रामधनी / दिनेश कुमार शुक्ल

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रास्ता परिचित था
सन्नाटा अपरिचित
रह-रहकर रूक जाना पड़ता था
लगता था कोई आ बैठा कॉंधे पर
खिलन्दड़, चपत लगाता धौल जमाता
टॅंगड़ी मारता

दिन पितर-पक्ष के
भूखा-प्यासा क्या जाने कौन हो
मन ही मन हाथ जोड़ आगे चले रामधनी

काठ के किवाड़ों और बिना खिड़कियों वाले घरों की नींव के
साथ-साथ
बहती चली चल रही थी बजबजाती नाली,
गोबर की गन्ध से कभी ख़ुश कभी नाराज़ होती हवा
चबूतरे पर लगी कटियामशीन और उस पर सूखती मटमैली धोती
को छेड़ती हवा दुपहर को गुदगुदाने के चक्कर में,
और दुपहर की धूप जा छुपी थी छतों में
भीगती मसों वाले लड़कों के साथ खोजती अभेद के भेद,
अधसीसी के दर्द और मिर्च की छौंक से भरी गली
बिल्कुल आँगन-सी चौपाल-सी परिचित लगने लगती कभी,
कहीं से बूँदों के टपकने की आ रही थी आवाज़,
सूप पछोरने की आवाज़ और कलह कलेस में डूबी
घायल बैसवाड़ी कहावतों के साथ उड़ते गरियहर विस्फोट

ठिठका समर्पित गली के मोड़ पर
खड़ा था एक रूप
एक पीपल बहुत बूढ़ा पर कदकाठी से लगता बीस बरस की वय
का
पत्ते-पत्ते देवानाम रामधनी मास्टर-सा बिल्कुल
जो हमेशा ‘छोटे’ ही रहे
यहाँ तक कि उनसे बहुत कम उमर के छोकरे भी
गाँव के रिश्ते में लगते उनके मामा और नाना
किस मजबूरी में आ बसना पड़ा होगा बाप को
बन कर घरजॅंवाई

गॉंव पार करते-करते लग रहा था आज
जैसे पाँवों के नीचे से खिसकती दूर चली जा रही है ज़मीन
और गली तो जैसे भाग रही थी अब
और भागते-भागते चने के खेतों वाली कॅंकरीली ज़मीन में
जाकर भरम गयी थी

आगे नाले की पुलिया पर बैठे
तीन चार जन चरा रहे थे बकरी भेंड़ी
उनमें से सबसे छोटे ने
खरी-खरी टहकार लगा कर पूछा- पंडित टैम क्या हुआ होगा
साइकिल रोकी रामधनी ने
हैंडिल थोड़ा दायें मोड़ा
साइकिल का पहिया डग भरता हुआ रूक गया
रामधनी ने कैरियल पर रखी गठरी को फिर से खोला बाँधा छोरा
मोड़ कलाई बड़े ध्यान से देखी घड़ी और फिर बोले टैम बुरा है
नहीं भरोसा किसी बात का किसी चीज़ का
चार बजे होंगे अब भइया-घड़ी बन्द थी कई साल से
पैडल मार बढ़ गये आगे रामधनी
कुछ भूल गये थे कहीं न जाने बरसों पहले
वह गोखुरू के कॉंटे जैसा जब तब टीस दिया करता था,
चरवाहों ने अपनी बकरी भेड़ हॅंकारी
पुलिया के नीचे छुपकर बैठे मेमने निकाले
और चल दिये फिर वापस आकाश मार्ग पर धीरे-धीरे
सूरज उनके साथ आज भी लुढ़क रहा था पहिये जैसा,
पता नहीं किस उषःकाल की भेड़ें औ’ उनके चरवाहे
नरवल के ऊसर से उड़कर
धर कर भेस देवदूतों का उड़ते चले जा रहे जाने किस सन्ध्या में,
अपनी गठरी को सॅंभालते
विडम्बना में मुस्कराते-से-
‘रामधनी के कौन कमी परारब्ध अपनी-अपनी’