सुबह से पहले ही / दिनेश कुमार शुक्ल
समझ नहीं पाए हम लेकिन
उसका जाना हमने देखा
किसी उपेक्षित विस्मृत भाषा
का वह शायद अन्तिम कवि था,
अभी रात कुछ-कुछ बाकी थी
कच्ची टूटी नींद की तरह
कड़वी-कड़वी हवा नीम के पत्तों को
छू-छू देती थी,
पता नहीं चिड़ियों का कलरव
आज उड़ गया कितना जल्दी,
सूरज के आने के पहले ही आभासी
चूने के पानी के रंग का एक सवेरा
फैल रहा था
उस निचाट ऊसर में बहता....
तीन मील था दूर वहॉं से बस स्टेशन
उसे पकड़नी थी ऐसी बस
जिसका आना-जाना रूकना चलना ढलना
नहीं किसी के भी बस में था,
तिस पर भी
विस्मृत भाषा का वह अनाम कवि
पता नहीं क्या चीज़ ढूँढ़ने चला
और फिर चलते-चलते
धॅंसता गया बहुत सॅंकरी-सॅंकरी गलियों में
जहॉं एक आवाज़
उसे कितने बरसों से बुला रही थी-
कुछ बच्चों ने देख लिया था
वह भुतहा घर
जिसमें दुःख गढ़े जाते थे
उन बच्चों की आवाज़ों की लहरें
उसको खींच रही थीं-
धॅंसता चला गया वह अर्थो
की अपारता के सागर में
डूब रहे थे शब्द
किन्तु कवि तैर रहा था
अपनी भाषा की गठरी को
अपने सिर पर साधे-साधे
जीवन के पुलकित प्रवाह में
पार कर रहा था वह ख़ुद को
तोड़ रहा था वह तिलिस्म दुःखों के गढ़ का...