नई कॉलोनी / दिनेश कुमार शुक्ल
अरावली पर्वतमाला फिर हार मानकर
आज और कुछ ज़्यादा पीछे खिसक गयी है
भय से आँखें बन्द किये मैं देख रहा हूँ
इन्द्रप्रस्थ के पास खांडव-वन को खाता
छिड़ा हुआ इक घमासान है-
जिसमें धरती हार रही है,
बजी ईंट से ईंट भर गया आत्मा में कंक्रीट
चिन गया दीवारों में प्रेम
पर्वतों की छाती को रौंद
बन रहे ऊँचे ख़ूब मकान
फट रहा आसमान है
ट्रैक्टर की मिक्सर की खड़खड़
अब भी उतनी ही कर्कश है इस साइट पर-
किन्तु आज आदमी बहुत थोड़े आये हैं
लगता है अब सिमट चला है काम
झुग्गियों के चूल्हे अब तक सोये हैं
नहीं उठ रहा धुआँ
लग रहा चले गये मज़दूर भोर होने के पहले...
आज नहीं आयी गायें भी जूठन खाने
धरती भी है गाय, गाय भी धरती ही है
लगता वे भी बिकीं और लद गयीं
लद गया समय, लद गये स्वप्न, लद गये स्वजन
और अब अरूणाभा तक नहीं, कि
ऐसी फीकी भोर कभी इस ठौर नहीं देखी थी मैंने
अभी वहाँ पर दूर दिख रहे जो थोड़े से लोग
न उनमें मिस्त्री या मज़दूर
सिर्फ़ ठेकेदारों का जमावड़ा है-
आसपास की हावा घास कुस कॉंस जल रहे हैं हिंसा में
नाप-जोख चल रही, इक नयी कॉलोनी बनने वाली है