क्रमशः / दिनेश कुमार शुक्ल
जो हुआ धीरे-धीरे ही हुआ
पहले प्रजातन्त्र आया
फिर समाजवाद आया
फिर प्रस्ताव किया गया कि
अब बहुत हुआ...
पृथ्वी घूमती जा रही थी
अभी तेज़ अभी धीमी...
फिर विरोध बन्द हो गया और
इतनी सहमति हुई दुनिया में
कि इतिहास की ही इति हुई
उधर अकविता और चिड़ियों
के घोसलों से
होता हुआ कवि
विमर्श के उत्कर्ष पर वर्षानुवर्ष
सहर्ष फ़र्श पर फिसलता चला गया...
सब कुछ तेज़ी से घटित हो रहा था
और आदमी घटता जा रहा था
उत्तरोत्तर उत्तर-आधुनिकता की धुनकी
मन और बुळि को रूई की तरह धुन रही थी,
लोग मुस्काते-मुस्काते इतना मुस्काते
कि बेहद कटु होते जाते थे
और मधुरता जाने क्यूँकर
इतनी बढ़ी कि एक दिन
बम्बई के समुद्रतट पर
किनारे-किनारे तैरती पायी गयी,
गहरे पानी पैठती
तो तय था उठाती ज्वार
किन्तु गहरे पानी पैठने का चलन तो
कब से बन्द था,
फिर भाषा की इतनी उन्नति हुई अचानक
कि किसानों के कत्लेआम को
अर्थशास्त्री आत्महत्या करार देने लगे
देश का अन्नागार चूहे चट कर गये
अचानक ही
दंडकारण्य के वृक्ष-लता-गुल्म
सब लोहे के हो गये,
पूँजी के पुंज-पुंज
कुंज-कुंजन में केलि कर रहे थे,
अचानक ही
उस शरद की रात्रि में
चन्द्रमा सुदर्शन चक्र की तरह
पृथ्वी की ओर बढ़ता देखा गया