गुम हो गई है संसद / उपेन्द्र कुमार
कथा प्रवाह को
तोड़ते हुए
सदियों पहले के समय से
आवाज अपनी जोड़ते हुए
मैं बोल पड़ना चाहता हूँ
क्यों जूझ रहे हो व्यर्थ कर्ण
कीचड़ में धंसे रथ चक्र के साथ
तुम तो बहुत पहले ही
हार चुके हो युद्ध
हार गए थे तुम
उसी दिन जब
उस व्यवस्था से मिलाया तुमने हाथ
जिसने बहाया था कभी तुम्हें
नदी को धार के साथ
या फिर हारे थे उस समय जब
लगे थे खड़े होने
दानवीर होने के
खोखले दर्प के साथ
नदियों के किनारे
साथ वालों से बित्ता भर ऊपर
उठाए हुए सर
पक्ष या विपक्ष में
कहीं भी खड़े होने से
तो अच्छा था कि
तुम कवच-कुण्डल संभाले
उन रास्तों पर चलते
जो बचपन से थे
देखे भाले
कहीं मिल बैठते साथ
एकलव्य, शिखंडी, शकुनि
घटोत्कच और विदुर के
अपनी-अपनी व्यथाओं, विह्वलताओं को
कहते-सुनते एक-दूसरे से
सब के दुख-सुख
बँटते
साथ मिला, रस्सी-सा
और तान देते उसे
समय और सच के खूँटों के बीच
देखते फिर कहाँ होता धर्म
और कहाँ होता युद्धद्य
कृष्ण भी आते पास तुम्हीं लोगों के
गाने को गीता।
पर नहीं हो पाता है
कुछ भी
बदलाव नहीं आता है कोई
चलती रहती है कथा
वही की वही
सच में
कहाँ हैं वो रास्ते
गुज़रते नहीं जो
जंगलों से होकर
कब लिखी गई वो कविता
हुई नहीं जो अरण्य रोदन
झुण्ड
बिचौलियों के
मँडराते हैं साथ गिद्धों के
शिकार के साथ करके बलात्कार
बनाई जाती है भाषा वयस्क
नहीं होता जिसके लिए कोई अन्तर
किसी वेश्या से
पूछने में उसकी पसन्द, या
देने में चुनने का अधिकार
किसी भूखे पेट को
भेड़ियों का जुलूस गुज़रता है
लालच से चमकती आँखें लिए
हिंसक जबड़ों में सुन्दर शब्द सजाए
प्रजातंत्र की जय गोहराता
और हालात हैं कि
बच्चे जैसे बिछुड़े मेले में
स्वार्थ के रेले-पेले में
गए हैं बिछुड़
जन और तंत्र
अब रौशनी है, रौनक है
आतिशबाजी है
पर तंत्र नहीं राजी है
मेले से बाहर जाने को,
जन को लिवा लाने को,
पीढ़ियों का विश्वास और भरोसा
खो जाता है क्षणों में
और कहीं भी रहने बैठने को
तैयार हो जाता है आदमी
तटस्थ आँखों से देखता
पसलियों की ओर बढ़ते चाकू को
लहू-लुहान लाशें
सपनों की
सदाशयता
मनुष्यता की
आकर गिरती है
धड़ाधड़ वहीं
जहाँ हुआ था तय
प्रजातंत्र के ताजमहल की
नींव का खुदना
लगता है अभी वक़्त नहीं हुआ
ताजमहल बनाने का
वैसे भी पहचान सही वक़्त और
सही चीजों की गई है खो
जब से अन्धा इतिहास
लगाया गया है पाठ्यक्रमों में
भूख की कक्षा में हो रही है कोशिश
सिवा रोटी के हर चीज पढ़ाने की
और भी कोशिशें जारी हैं
जैसे
खड़े होकर मूतते आदमी के
धार्मिक संस्कार जानने की
उसके प्रमाण पत्रों के सहारे.....
विस्फारित नेत्रों से
देखती हे कविता कि
बनाया जा रहा है उसे असमर्थ
तीर को तीर
और तमंचा को कहने से तमंचा
जेल को जेल
और घर को कहने से घर
भुक्खड़ पेट के नंगेपन को
निरर्थक शब्दों से ढँकने की
अश्लील साजिश से
अफनाकर
बमकते हुए
वह उठा लेना चाहती है बन्दूक
और गाना चाहती है गोलियों के गीत
धमाकों और धुएँ के बीच
पहचान खोते रिश्तों
के अन्दर से खींच लाना चाहती है
उस आदमी को
जिसमें फूलों और तितलियों की
पहचान बाकी हो
और जो एक दुधमुँही किलकारी पर
हो जाए न्योछावर
बिना किए चिन्ता
अपनी फटी कमीज या
इस बात की
कि घटती रोटियों के बीच
आ गया है एक और नया हिस्सेदार
पर एक पाएगी क्या
कविता ऐसा चमत्कार
काफी नहीं है केवल
चाहना और कहना
कहाँ हैं?
ऐसे सधे हाथ
ऐसे विलक्षण माथ
ऐसे बाँके औजार
ऐसे मेहनती कामगार
कहाँ हैं.....
और फिर कविता की ओर
आता ही है कौन
सब देखते हैं टी.वी.
रहते हैं मौन
कोई नया नहीं है यह मौन
यह सन्नाटा
जो छाया है, छा जाता है अक्सर
होता है जब भी
द्रोपदी का चीर हरण
द्रोण का वध
या भीष्म का भूमि शयन
कटे पड़े की थुन्ही पर
बैठी चिड़िया
गा रही है या करती है रूदन
पहचान इसकी
खो देता है समाज जब
धोखे का एक महल
यातना के अनगिनत तहख़ानों के साथ
करती है तैयार सत्ता तब
हर युवा चेहररा
रक्त और कीचड़ में सना
करता है प्रतिवाद
नपुंसक क्रोध से निकल
गूँजती है करुण चीत्कार
कोई विशेष अर्थ नहीं
रह जाता तब
बच्चों के बस्ता दबाए
स्कूल जाने में
बच्चियों के गुड्डा-गुड्डियों से
मन बहलाने में
अकाल की नैतिकता का
पहला पाठ शुरू होता है क्रूरता से
और अन्त अयथार्थ स्वर्ग के
अश्लील सुखों के आश्वासनों में
काफिले सत्ता के गुज़रते रहते हैं
इन्हीं आश्वासनों के पुलों को
रौंदते हुए
कठुआये चेहरों को
बिछाते हुए लाशें
शिनाख्त जिनकी हो नहीं पाती
पुलिस की जाँच
और चीरघर के सारे मजाक के बाद भी
पेड़ों और पत्तियों
के सारे विरोधों के बावजूद
न तो मौसम
और न जंगल
तैयार हैं अपहृत साँसें लौटा
अपने रंग-ढंग बदलने को
थकी-सी धरती
जाकर लेट जाती है
दूर कहीं क्षितिज पर
काले आसमान के साथ
वनस्पतियाँ
उल्टा लटकने की तैयारी में
बहलाती फुसलाती हैं
तारों को
जिन्होंने सूरज और चाँद से
डरना छोड़ दिया है कब का
बढ़ता चला जा रहा है
कुर्सी का पेट
बहाल किया है उसने
अभी हाल ही में
छिनार राजनीति को
अपनी सेवा में
किताबों से साठ-गाँठ कर जो
गढ़ रही है नित नए नारे
कुर्सी की तरफदारी में
गनीमत है कि
जिन पर लिखने जाने थे ये नारे
उठा ले गए हैं
कुछ कंकाल वे दीवारें
लेकिन कब तक.....
कब तक
खै़र मनाएगी बकरे की माँ
चाकू, चाकू है और गोश्त, गोश्त
बहुत पुराना है
दोनों का सम्बन्ध
और उतना ही पुराना चला आ रहा है
ये सिलसिला
हाँ सच में
तुम्हारे पास खोने के लिए
अपनी गरदनों के अलावा कुछ भी तो नहीं
केवल शब्दों के सही चुनाव
और व्याकरण के अनुशासन
तक ही सीमित मत करो
कलम के चमत्कार
गढ़ने दो उसे कुछ नए आकार
क्योंकि
उम्मीद तो हर हाल में
बची रहती है
उसे बचाए रखना पड़ता है
अत्याचारों और चमत्कारों के बाहर
अलगी पीढ़ी के लिए
चाहे जितना भी तिरस्कृत होता रहे जीवन
भ्रूण हत्या के पाप से
बचना है इन्सानियत को
वादा है भालों और तलवारों का
वे बचाए रखेंगी
पृथ्वी पर इन्सानियत को
वैसे अजनबी होने की
शुरुआत तो हो गई थी
उसी दन
जब हमने तलाशी थी
अलग-अलग जगहें
अपनी बची हुई रोटियों को रखने के लिए
अब तो नई पहचान बनाने को
सोचे हुए नारे हैं
गढ़े हुए गीत हैं
हँसुए का गीत
रेडियो का गीत
हथौड़े का गीत
टीवी का गीत
पकी फसलों का गीत
उजड़े गाँवों का गीत
सड़कों का गीत
जूते का गीत
और सबसे ऊपर
जूतमपैजार का संगीत
संगीत देता है उत्साह, उमंग
संगीत देता है शक्ति, सबको
नंगे खुले सीनों को
बन्दूक थामे हाथों को
ज्यादा किसको
यह तो ठक-ठक करते बूटों की
तफ़तीस ही
कर पाएगी तय
पर मौत तो होती है मौत
और हत्यारे होते हैं हत्यारे
परिभाषा बदल जाए हत्या की
तो क्या पहचान भी बदलेगी हत्यारों की
अकाल, भुखमरी
और संक्रामक रोगों में हुई मौतों
से शायद ज्यादा
सभ्य और संस्कारवान होती हैं
साम्प्रदायिक दंगों, आजगनी, लूटपाट
और हिंसक मुठभेडों में हुई मौतें
इसी अनुपात में हो गए हैं
हत्यारे भी सभ्य
फेंक कर हथियार पुराने
ओढ़ लिए हैं विचार नए
नहीं रह गया है अब उनका
चेहरा जल्लादी
हँसते मुसकाते
फूल से खिले चेहरे वाले
हत्यारे जी आइए, आइए स्वागत है आपका
हम लाएँगे बन्दूकें
हम बनाएँगे बम
हम चलाएँगे गोलियाँ
फेकेंगे बम
एक दूसरे पर
होली के रंगों की तरह
मनाएँगे नरसंहार का आदिम उत्सव
आओ, नए विचारों के उद्घोषक
नई कालिमा, नए अन्धकार के भगीरथ
आओ हमारे बीच
फेंको स्वर्णिम जाल
ताकि महसूस कर सके
हर आदमी
अपने को जिम्मेदार
उन तमाम अनकिए गुनाहों के लिए
जो मन्दिर
और खेत के बीच
हुए हैं कभी-न-कभी
और भूल जाए वो वादा जो
हर बच्चा माँ से करता है
फेंक दे वो वचन जो
हर पिता अपने बेटे को देता है।
ये हत्यारे जो
तरह-तरह के रूप रंग धर
तरह-तरह की बोलियाँ लेकर
हर दिशा से आते हैं
इनका हथियार बनने से पहले
सावधान होना
जरूरी है हर किसी का
इन फरेबी सौदागरों का
शिकार होने से पहले ही
होशियार होना जरूरी है
वर्ना ये चला देंगे तुम्हीं को
तुम्हारे विरुद्ध
बना लंेगे अपना काम
तुम्हारी कटी गरदनों के नाम
लड़ लेंगे अगला चुनाव
और प्रतिनिधि बन तुम्हारे चल देंगे
कहीं दूर देश
इसलिए आगाह किया जाता है
हर खास व आम को
रहे सावधान वो अपने बाप से
रहे सावधान वो अपने आप से
अब कहीं जाकर
हुई है पूरी जनगणना
कितनी-कितनी मुश्किलों को पार कर
फिर भी कटे हुए हाथों की संख्या
नहीं गई है घटाई
और बड़ा हो या छोटा
हर पेट माना गया है एक ईकाई
होना है इसी आधार पर मतदान
मतपत्रों की पेटियाँ गई हैं सजाई
पर मना है उनके पास जाना
समझ-बूझ और विचारों के साथ
हाँ बम बन्दूक आदि
रख सकते हैं पास
अब देखो हुआ वही
जो होता है अक्सर
बहुत संभलकर रखी चीज
हो जाती है गुम
वक्त जरूरत पर तलाशते फिरो हर
सम्भावित-असम्भावित स्थान
एक बार फिर बार-बार
नहीं मिलती तो नहीं ही मिलती है पर
अब देखिए न
ये तो हर है
हद की भी है हद
कि ऐन वक़्त पर
गुम हो गई है संसद।