प्रतीक्षा में पहाड़ / उपेन्द्र कुमार
कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में
जैसे सर्दी-गर्मी के मौसम का
नहीं होता उन पर कुछ भी असर
बेचारे
बरसात से गीले
अपने कपड़े सुखा भी नहीं पाते
कि सिर पर आ धमकती हैं सर्दियाँ
सूखने लगता है
शरीर का हरा खून
पड़ जाते हैं चेहरे सफेद
पसरता है चतुर्दिक
साँय-साँय सन्नाटा
डूब जाते हैं पहाड़
चिर प्रतीक्षा में
निस्तब्ध
माघ के
सूरज को ताप
होती है दूर अकड़न
हाथ-पाँव की
दौड़ना शुरू होता है शिराओं में
पुनः हरा रक्त
हथेलियों से चेहरा पोंछ
फिर सारी ठंड ढँक देते हैं पहाड़
आकाश में बादल बना
परन्तु करते हैं धन्यवाद ईश्वर का
तपते मैदान
बारिश के लिए
कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में
मसलन पहाड़ होते हैं केवल पहाड़
कितना कुछ करते हैं
पालते हैं पूरा का पूरा कुटुम्ब
गाँव से गाँव अपनी गोद में
बुलाते हैं बच्चों को
गर्मियों में मित्रों सहित
मायके आयी नदियों को
करते हैं विदा बरसात में
भेजते हैं फलों-फलों के उपहार
दूर-दराज के मित्रों को
जो जाते हैं भूल
धन्यवाद करना पहाड़ों का
कितना गलत
जानते हैं हम
पहाड़ों के विषय में