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जलावतन / उपेन्द्र कुमार

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बेगाने शहर को
हर ठोकर
उस अगले पड़ाव की
हादसा भरी घटना है
जो एक अमानुष होने की यात्रा है।

तपिश कायम रहे
बहते लहू की
इसीलिए
ईंधन बन जल रहा हूँ मैं
अब न करो मुझसे
मेरे गाँव की चर्चा

गाँव
जहाँ होता था मैं
गामा, कुश्ती लड़ते हुए
पेले, खेलते हुए
कपड़ों के लत्तों से बनी फुटबाल
कृष्ण कन्हैया
माई के फटे गँधाते आँचल के नीचे
कथरी पर सोते हुए
लाल बहादुर
बापू से डाँट सुन
पढ़ने जाते हुए
जो रह गया है
यादगार बन
कभी न खत्म होने वाले कर्ज का
लाठियों, कट्ठों, फूटते सिरों, गंधाती लाशों का
कुवांरियों के
अन्तिम समर्पण का
त्रासद वृत्तान्त

अब तो रह गया है
गाँव
जतन से सहेजकर रखी हुई
एक सुन्दर पुरानी तस्वीर
आ गिरा है लद्द से
जिस पर
वक्त का थूका हुआ बलगम

ईंधन बना
जानता हूँ
जब भी अभाव होता है
महानगर में
जलावन की खातिर
झोंक दिया जाता है
कोई एक गाँव
और पैशाचिक नृत्य में
रौंदते हैं
सब कुछ जनतंत्र की
चिता पर उत्सव मनाने।

अपने ही घाव से बहते
लहू को
कुत्ते की तरह
चाटने का भी
होता है एक सुख
जलावन बनने के सुख जैसा ही
बुने जा सकते हैं
स्वप्न
प्रतिहिंसा और दुराशा से भी

ईंधन बन जलता में
सही समय और सही हाथों में
ले सकता हूँ आकार
मशाल का
पर
राख बनने से पहले
धरती की गोद में समाने से पहले
प्रमुदित हो सकता हूँ
रोम को जलते देख
नीरो की जगह न बैठाओ मुझे
मैं जलते हुए
ठीक हूँ
गाँव के विकल्प में